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देश में गरीबी के घटने से संबंधित आंकड़े अविश्वसनीय

aaj ki bat
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V sharma
राष्ट्रीय नमूना सव्रेक्षण संगठन (एनएसएसओ) ने देश में गरीबी के घटने से संबंधित जो आंकड़े प्रस्तुत किए हैं, वे पहली ही नजर में अविश्वसनीय लगते हैं। एनएसएसओ के ताजा सव्रे के मुताबिक पिछले सात सालों में देश में गरीबों की तादाद में 15 फीसद की गिरावट आई है। दावा है कि सात साल पहले देश में 37.2 फीसद लोग गरीब थे जिनकी तादाद अब घट कर 21.9 फीसद रह गई है। इन आंकड़ों के आधार पर सरकार अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश भले ही कर ले, लेकिन सव्रे की बुनियाद और विश्वसनीयता पर कई सवाल उठ सकते हैं। गौरतलब है कि सव्रे में गरीबों की पहचान का आधार उसी तेंदुलकर फॉर्मूले को बनाया गया है जिसे तमाम आलोचना के बाद सरकार स्वत: खारिज कर चुकी है। गरीबी के आकलन और गरीबों की पहचान के लिए जिस रंगराजन समिति का गठन किया गया, उसकी रिपोर्ट भी अब तक नहीं आई है। इसके अलावा आंकड़ों की प्रामाणिकता पर भी कई सवाल उठते हैं। मसलन, बिहार में 2004-05 में गरीबों की तादाद 54.7 फीसद थी, जो 2009-10 के सव्रे में मामूली तौर पर कम होकर 53.5 फीसद दर्ज हुई, लेकिन 2011-12 में इसे महज 33.7 फीसद बताया जा रहा है। यह कैसे संभव है कि 2004-05 से 2009-10 के पांच वर्ष के दरम्यान तो बिहार में गरीबी महज एक फीसद घटी, लेकिन 2009-10 से 2011-12 की दो वर्षो की अवधि के दौरान उसमें यकायक बीस फीसद की गिरावट आ गई। गरीबी में कमी के ऐसे सक्त्र्चमत्कारीसक्ज्ञ् आंकड़े अन्य राज्यों के भी नजर आ रहे हैं। ध्यान रखने की बात यह भी है कि आमतौर पर गरीबों की तादाद का परीक्षण करने वाले सव्रे को पांच साल में एक बार कराया जाता है। लेकिन 2009-10 में सूखा पडऩे का हवाला देते हुए दो वर्ष बाद पुन: सव्रे कराया जाना अपने आप में सवाल खड़े करता है। खासकर 2009-10 और 2011-12 के निष्कर्षो में भारी अंतर को देखते हुए संदेह होता है कि कहीं नए सव्रे को सरकार के पक्ष में आंकड़ों का आधार खड़ा करने के लिए तो नहीं कराया गया? यदि यह मान भी लें कि बीते सात वर्षो में गरीबों की तादाद में वस्तुत: इतनी व्यापक कमी आई है और देश में महज 22 फीसद लोग ही गरीबी में जीवन गुजार रहे हैं, तो प्रश्न उठना जायज है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत लगभग 70 फीसद लोगों को सस्ता भोजन देने की क्या जरूरत है? दरअसल, तेंदुलकर समिति के हिसाब से जो गरीबी रेखा तय की गई है, उसे कई आलोचक भुखमरी की रेखा कहना बेहतर समझते हैं। आखिर शहरों में 28 और गांवों में 22 रुपए कमाने वाले को गरीबी रेखा से ऊपर बताना गरीबों का मखौल उड़ाना नहीं तो और क्या है? ताजा सव्रे के आंकड़ों के उलट जानकार मानते हैं कि बीते तीन-चार वर्षो में लगातार बढ़ी महंगाई के कारण तमाम लोग वापस गरीबी की गर्त में डूब गए हैं। ऐसे में इन आंकड़ों के आधार पर यदि सरकार गरीबी उन्मूलन के मोर्चे पर खुद को चैंपियन बताने की सोच रही है, तो यह गरीबों के जख्म पर नमक छिडक़ने जैसा ही होगा।

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