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सरकारी तंत्र में पारदर्शिता लाने एवं जबावदेह बनाने के लिए भारत सरकार ने 2005 में सूचना अधिकार कानून पास करवाकर खूब वाहवाही लूटी। चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेसी नेता इसका जिक्र कर बताने की कोशिश करते रहे हैं कि हम भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं तभी ऐसा कानून बनाया। अब जब केंद्रीय सूचना आयोग राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की व्यवस्था दे चुका है, तो सबसे ज्यादा वही दल विरोध भी कर रहा है, जिसने इसे बनाया था। कांग्रेस के साथ भाजपा, माकपा,जनता दल-यू एवं अन्य दल भी इसका विरोध कर रहे हैं। इन दलों का तर्क है कि इससे लोकतांत्रिक संस्थाओं को क्षति पहुंचेगी, हमारे पास छिपाने लायक कुछ भी नहीं है, हम सरकारी संस्था नही हैं, आदि-आदि। उनके ये तर्क हास्यास्पद लगते हैं क्योंकि राजनीतिक दल ही सरकार बनाते हैं और देश की नीतियों, कानूनों का निर्धारण एवं अनुपालन कराते हैं। ऐसे में उनका विरोध देश के 125 करोड़ लोगों के साथ धोखा है। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को भी इस कानून के दायरे में लाने की जरूरत है ताकि वे भी जनता के प्रति जबावदेह बन सकें। दलों को पारदर्शिता का परिचय देकर इसका स्वागत करना चाहिए, जिससे लगे कि वे पाक-साफ हैं।
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